फ़िल्म ‘द लीस्ट ऑफ दीज: द ग्राहम स्टेन्स स्टोरी’ के निर्देशक अनीश डेनियल हैं| इतिहास में कुछ ऐसे किस्से दर्ज हैं, जब धर्म को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करके कत्लेआम किया गया है। जानकारी देते हुए बता दें, कि यह फ़िल्म ऐसी ही दिल दहला देने वाली वास्तविक घटना पर आधारित है|
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फ़िल्म की कहानी
इस फ़िल्म की कहानी का बैकड्रॉप सन 1999 का है, जब पत्रकार मानव बनर्जी (शरमन जोशी) अपनी गर्भवती पत्नी को साथ में लाकर अपना भविष्य की संवारने की उम्मीद लेकर उड़ीसा के लिए निकल पड़ता है। वहां पहुंचकर अखबार के एडिटर केदार मिश्रा (प्रकाश बेलावड़ी) से नौकरी के लिए कहता है, जिसके बाद उसे असाइनमेंट मिल जाता है, और उनसे कहा जाता है, कि यदि वह मानव ग्राहम स्टेंस को बलपूर्वक धर्मांतरण करने वाले मिशनरी के रूप में स्थापित करने वाले पुख्ता सबूत लाकर दे दें, तो यहाँ उनकी नौकरी पक्की है।
नौकरी पाने के लिए वह दिन-रात एक करके उन सबूतों को इकट्ठा करने के लिए जुट जाता है। सबूत ढूँढने के दौरान उस शख्स को यह नहीं मालूम होता है, कि केदार का इसके पीछे अपना स्वयं का स्वार्थ है। खोजबीन से उसे एक सबूत मिल जाता हैं, लकिन वह भी गलत साबित हो जाता है| वहीं दूसरी ओर उस मानव की पत्नी बेटी को जन्म देती है, जिससे उसकी हालत गंभीर हो जाती है, और उसे अस्पताल ले जाया जाता है|
यहां ग्राहम की जासूसी करते हुए मानव को एक नई बात मालूम होती है, कि वह अपनी पत्नी और 3 बच्चों के साथ पिछले 34 वर्षों से भारत के ग्रामीण समाज में शापित कुष्ठ रोगियों की सेवा करते आ रहे हैं,इसके बाद कहानी पहुंचती है, जब उन्हें उनकी पत्नी और दो बच्चों को भीड़ सोते में जिंदा जलाकर मार दिया जाता है।
फिल्म धर्मांतरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर आधारित है| फिल्म ग्राहम की सचाई को दर्शाने के बजाय एकतरफा बन जाती है। अंत में आपको डॉक्यूमेंट्री देखने जैसा महसूस होता है। पत्रकार मानव बने शरमन जोशी ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है, फन बाल्डविन ने ग्राहम के किरदार को बेहतर तरीके से निभाया है। कुष्ठ रोगियों की सेवा करते हुए वे किसी फरिश्ते से कम नहीं लगते। प्रकाश बेलावड़ी और मनोज मिश्रा ने अपनी भूमिकाओं को सही अंजाम तक पहुंचाया है।
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