Santan Saptami 2019: संतान सप्तमी व्रत हर साल भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को रखा जाता है| जो महिलायें इस व्रत को करती हैं उन्हें संतान प्राप्त होने का आशीर्वाद प्राप्त होता है| इस बार यह व्रत गुरूवार 5 सितंबर को रखा जाएगा|
व्रत का महत्व
इस व्रत को सभी महिलाएं अपनी संतान की लंबी आयु और उन्नति के लिए करती हैं| इस दिन भगवान शंकर और माता पार्वती की पूजा की पूजा की जाती है| मान्यता है कि, इस दिन व्रत रखने और मां पार्वती व भगवान शंकर की पूजा करने से जिन महिलाओं को संतान नहीं है, उन्हें महादेव और मां पार्वती के आर्शीवाद से कार्तिक और गणेश जैसी तेजस्वी संतान की प्राप्ति होती है|”
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पूजन विधि
1. व्रत वाले दिन सबसे पहले सुबह स्नान आदि से निवृत्त हो लें और साफ कपड़े पहने|
2. इसके बाद भगवान विष्णु और भगवान शंकर की पूजा करनी चाहिए और इसके साथ ही भगवान शंकर के पूरे परिवार और नारायण के पूरे परिवार की भी पूजा की जाती है|
3. निराहार सप्तमी व्रत का संकल्प लिया जाता है|
4. दोपहर में चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी तथा नारियल आदि से फिर से भगवान शंकर और माता पार्वती की पूजा की जाती है|
5.इसके साथ ही इस व्रत में नैवेद्ध के रूप में खीर-पूरी तथा गुड़ के पुए बनते हैं|
6. संतान की रक्षा की कामना करते हुए शिवजी को कलावा चढ़ाना चाहिए और बाद में इसे खुद धारण कर लें|
7. इसके बाद व्रत कथा सुननी चाहिए|
संतान सप्तमी व्रत कथा
अयोध्यापुरी नगर का प्रतापी राजा था, जिसका नाम नहुष था| उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था| उसी राज्य में विष्णुदत्त नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था, उसकी पत्नी का नाम रूपवती था|
रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती सखियां थीं,स्नान से लेकर पूजन तक दोनों एक साथ ही करतीं| एक दिन सरयू नदी में दोनों स्नान कर रही थीं और वहीं कई स्त्रियां स्नान कर रही थीं| सभी ने मिलकर वहां भगवान शंकर और मां पार्वती की एक मूर्ति बनाई और उसकी पूजा करने लगीं|
चंद्रमुखी और रूपवती ने उन स्त्रियों से इस पूजन का नाम और विधि बताने कहा| उन्होंने बताया कि यह संतान सप्तमी व्रत है, और यह व्रत संतान देने वाला है| यह सुनकर दोनों सखियों ने इस व्रत को जीवनभर करने का संकल्प लिया लेकिन घर पहुंचकर रानी भूल गईं और भोजन कर लिया| मृत्यु के बाद रानी वानरी और ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं|
कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं| चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया| इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था| भूषण का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ| इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया लेकिन पिछले जन्म में व्रत करना भूल गई थीं, इसलि रानी को इस जन्म में संतान प्राप्ति का सुख नहीं मिला, लेकिन भूषणा नहीं भूली थी,उसने व्रत किया था इसलिए उसे सुंदर और स्वस्थ आठ पुत्र हुए|
संतान ना होने के कारण रानी परेशान रहने लगी, तभी एक दिन भूषणा उन्हें मिली | भूषणा के पुत्रों को देखकर रानी को जलन हुई और उसने बच्चों को मारने का प्रयास किया | लेकिन भूषणा के किसी भी पुत्र को नुकसान नहीं पहुंचा और वह अंत में रानी को क्षमा मांगना पड़ा |
भूषणा ने रानी को पिछले जन्म की बात याद दिलाई और कहा उसी के प्रभाव से आपको संतान प्राप्ति नहीं हुई है और मेरे पुत्रों को चाहकर भी आप नुकसान नहीं पहुंचा पाईं| यह सुनकर रानी ने विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा, जिसके बाद रानी के गर्भ से भी संतान का जन्म हुआ|
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